Saturday, May 30, 2020

पिता

   
                                पिता

            है पिता चिंतित कर्ण के लिए,
और एक पिता भी चिंतित है अर्जुन के लिए|

            चिंतित सूर्यदेव आज नहीं देना चाहते दर्शन ,
जानते हैं वे कि इसी में है कर्ण का रक्षण |

            हो अगर सूर्य उदय ; छल द्वार पर आएगा ,
पुत्र अर्जुन की खातिर स्वयं पर लांछन लगवाऐगा |

           दोनों देव हैं, दोनों देवता के प्रसाद हैं,
पर जीतेगा वही जिसके दीनानाथ है|

           सब अलग होता गर भाई-भाई मिल जाते ,
ऐसे पुत्रों को प्राप्त कर पिता गर्व से हर्षाते |

           पर पिता की विडंबना कौन समझ पाया है ?
उसने तो सामने कठोर और अकेले में आंसू बहाया है |


           कहते हैं ,माता ही ममता की मूरत होती है,
 पर पिता को भी बच्चों की चिंता होती है|

           मां के आंसू को सबने जाना है ,
पर क्या पिता की घुटन को किसी ने पहचाना है ?
   
   
     -प्रा. पायल जायसवाल

Thursday, May 28, 2020

नवनिर्माण {कविता} भावार्थ एवं शब्दार्थ

                       

      1.  नवनिर्माण

(कवि त्रिलोचन जी )
                       



                            





 चतुष्पद - १

तुमने विश्वास दिया है मुझको,
मन का उच्छ्वास दिया है मुझको|
मैं उसे भूमि पर संभालूंगा ,
तुमने आकाश दिया है मुझको |


शब्दार्थ :

 उच्छ्वास - आह भरना , (यहां पर जीवन )
भूमि - धरा , धरती
आकाश - अंबर


भावार्थ :


कवि त्रिलोचन जी इस कविता के माध्यम से आशावादी दृष्टिकोण रखते हुए कहते हैं कि हमारा जन्म इस पृथ्वी पर हुआ है उसके पीछे कोई ना कोई उद्देश्य है| कवि कहना चाहते हैं कि एक अलौकिक शक्ति जिसे हम भगवान कहते हैं या अल्लाह कहते हैं या प्रकृति ,चाहे जो कह लो , हमें जो जन्म मिला है वह कुछ उद्देश्य पूरा करने के लिए मिला है| जिस तरह आकाश कितना बड़ा होता है हम उसको गिन सकते हैं क्या ?नाप सकते हैं क्या ?नहीं माफ सकते क्योंकि वह असीम है ,बहुत बड़ा है |ठीक उसी तरह कई अनगिनत उद्देश्य है हमारे जन्म के पीछे ; तो हमें उस उद्देश्य को पूरा करना है |हमारे इसी उद्देश्य को पूरा करने पर क्या होगा ; समाज एक नई दिशा की ओर मुड़ेगा | समाज को नई दिशा प्रदान करने के लिए प्रकृति ने बोलो या ईश्वर ,भगवान चाहो जो बोलो उन्होंने हमको इस पृथ्वी पर भेजा है ताकि हम एक नए समाज का निर्माण कर सकें|
उपर्युक्त पंक्ति में कवि त्रिलोचन जी का हमें समाज की ओर आशावादी दृष्टिकोण नज़र आता है|

 चतुष्पद - २

२)   सूत्र यह तोड़ नहीं सकते है|
तोड़कर जोड़ नहीं सकते है |
व्योम में जाए, कहीं भी उड़ जाए ,
 इस भूमि को छोड़ नहीं सकते  हैं |

 शब्दार्थ :


व्योम -  आसमान , आकाश

भूमि - धरा , धरती


 भावार्थ :

कवि त्रिलोचन की कहना चाहते हैं कि सृष्टि में जो चीज का भी  निर्माण हुआ है उसके साथ हम छेड़छाड़ नहीं कर सकते है |
जिस प्रकार किसी भी चीज को हमें तोड़ना नहीं चाहिए ,संभाल कर रखना चाहिए, फिर चाहे वह रिश्ता हो या कुछ और हो | जैसे हम अपने रिश्ते को संभाल कर रखते हैं और पूरी कोशिश करते हैं कि वह टूटना नहीं चाहिए |अगर मान लीजिए टूट जाता है तो क्या होगा? पुनः वह रिश्ता जुड़ नहीं पाएगा और अगर जुड़ भी जाता है तो रिश्तो में खटास आ जाती है|
अत: सृष्टि का नियम है कि जो चीज जैसी है , उसे वैसे ही उसे सुरक्षित रखना है और अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो वह टूट जाएंगी और टूटी हुई चीज कभी जुड़ सकती नहीं है |
कवि आगे कहते हैं कि जैसे ही हमारा जन्म होता है हमारा नाता इस पृथ्वी से जुड़ जाता है ,इस धरती से जुड़ जाता है और चाह कर भी हम उसे तोड़ नहीं सकते हैं इसीलिए हम कहीं भी चले जाए दुनिया के किसी भी कोने में चले जाएं हम मातृभूमि से हमेशा जुड़े हुए ही रहेंगे और यही सत्य है |


 चतुष्पद ३

 सत्य है राह में अंधेरा है ,
रोक देने के लिए घेरा है |
काम भी और तुम करोगे क्या ,
बढ़े चलो सामने अंधेरा है |


 शब्दार्थ : -


सत्य = सही
 घेरा = रुकावट
अंधेरा = अंधकार (यहां पर मुसीबत)

भावार्थ :-


यह एक चतुष्पद विधा का काव्य है |
कवि त्रिलोचन जी कहना चाहते हैं कि हमें अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जिस मार्ग पर चलना हैं, उस मार्ग पर अंधेरा है |अंधेरा से यहां पर कवि मुसीबत से लेते हैं वे कहते हैं कि हमको लक्ष्य प्राप्त करने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा और हम अपने लक्ष्य को प्राप्त ना कर सके इसीलिए अनेक समस्याएं हमें घेर लेगी लेकिन हमें उन समस्याओं को पार करते  हुए ,जूझते हुए अपने मार्ग पर सतत बढ़ते रहना है |

कवि कहना चाहते हैं कि अगर हम चुनौतियों का सामना नहीं करेंगे तो हम क्या करेंगे ?खाली तो हम बैठ सकते नहीं हैं |कोई भी चीज यदि हम को आसानी से मिल जाती है तो हमें उस चीज की कीमत रहती नहीं है |उस चीज का हम मूल्य समझते नहीं हैं| कोई चीज अगर मेहनत करके मिलती है तो हम उसको बहुत अच्छे से रखते हैं और उसकी कीमत को भी अच्छी तरह से समझ सकते हैं ;इसीलिए बिना मेहनत के हमको कुछ मिलने वाला नहीं है हमको लगातार अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मार्ग में आने वाली चुनौतियों का सामना करते हुए आगे बढ़ते चले जाना है और सामने जो अंधेरा है उसको भी पार कर कर आगे बढ़ना है ताकि हमको हमारी मंजिल मिल जाए |


 चतुष्पद ४

बल नहीं होता सताने के लिए ,
वह है पीड़ित को बचाने के लिए|
 बल मिला है तो बल बनो सबके ,
 उठ पड़ो न्याय दिलाने के लिए |

 शब्दार्थ :-

बल = ताकत
सताना = दूसरों को परेशान करना
पीड़ित = तकलीफ को सहने वाला

भावार्थ :-


 मनुष्य को अपना कर्तव्य समझाते हुए कवि त्रिलोचन जी कहते हैं कि व्यक्ति अगर बलशाली है तो उसने अपने बल का प्रयोग उचित जगह करना चाहिए | उसने हर निर्बल व्यक्तियों की रक्षा करनी चाहिए कहने का तात्पर्य यह है कि हर व्यक्ति के पास बल होता है ; किसी के पास शारीरिक बल यानी बहुत ज्यादा ताकत होती हैं तो किसी के पास बौद्धिक बल होता है , दिमाग से कोई - कोई बहुत चतुर या होशियार होता है |

 यहां पर कवि यह संदेश दे रहे हैं कि भगवान ने जो हमें ताकत दी है चाहे वह शरीर की ताकत हो चाहे वह दिमाग की ताकत हो ; तो उसका हमें सही प्रयोग करना चाहिए अर्थात जो  पीड़ित व्यक्ति है उसको बचाने के लिए करना चाहिए |निर्बल व्यक्ति के ऊपर हमें अपना शारीरिक बल या बौद्धिक बल आजमाना नहीं चाहिए | इससे उसको हानि पहुंच सकती है ,क्षति पहुंच सकती है |भगवान ने हम को जो ताकत दी है , जो शक्ति दी है हमें जो बल दिया है उसका प्रयोग दूसरों को सताने के लिए नहीं करना चाहिए बल्कि पीड़ितों को बचाने के लिए करना चाहिए |भगवान द्वारा प्राप्त बल के माध्यम से हमें सब की ताकत बनना है और  जिस पर अन्याय हो रहा है उसको हमें न्याय दिलाने के लिए मदद करना चाहिए यही हमारा कर्तव्य है |



चतुष्पद ५


जिसको मंजिल का पता रहता है ,
पथ के संकट को वही सहता है |
एक दिन सिद्धि के शिखर पर बैठ ,
अपना इतिहास कहता है |

 शब्दार्थ :-

 मंजिल = लक्ष्य
संकट =विपत्ति
पथ = मार्ग ,रास्ता
सिद्धि = सफलता
शिखर = पर्वत की चोटी

 भावार्थ :-

कवि त्रिलोचन जी मनुष्य को आशावादी रहने का आवाहन देते हुए कहते हैं कि जिस व्यक्ति को अपनी मंजिल दिखाई देती है वह सर्वप्रथम कई कष्टों को ,बाधाओं को पार करते हैं|

सफलता का मार्ग अति 
कंटकमयहोता है |यहां कवि मनुष्यों का हौसला बढ़ाते हुए उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हुए कहते हैं कि सच्चा मनुष्य वहीं है जो सफलता के मार्ग में आने वाली समस्याओं का डटकर सामना करता है | संकटों की शरण ना जाकर विघ्नों को गले लगाते हुए सही मायने में वही व्यक्ति सफलता का अधिकारी हो जाता है |

कवि आगे कहते हैं कि जो भी मनुष्य इस विषम परिस्थितियों से लड़ता है वही एक दिन सफलता के शिखर को पा लेता है | इस शिखर को पाने के लिए उसने कितने बलिदान दिए , कितनी तकलीफें उठाई ऐसी प्रेरणा वह अन्य लोगों को भी देते हैं और आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं |
इस प्रकार मनुष्य को कवि ने हमेशा जीवन के प्रति आशावादी दृष्टिकोण रखने का संदेश इस चतुष्पद पद में दिया है|





चतुष्पद  ६  : -

प्रीति की राह पर चले आओ ,
नीति की राह पर चले आओ |
वह तुम्हारी ही नहीं , सबकी है ,
गीति की राह पर चले आओ |


 शब्दार्थ : -


प्रीति =प्रेम 
नीति = व्यवहार का ढंग
गीति = गान ,गीत


भावार्थ :-


इस चतुष्पद में कवि त्रिलोचन जी सभी से प्रेम के मार्ग को अपनाने का आवाहन करते हैं | उनका कहना है कि समाज में रहना है तो हमें सभी के साथ मिल-जुल कर प्रेम पूर्वक रहना चाहिए| इस तरह मित्रता पूर्ण व्यवहार में रहेंगे तो हमारा जीवन बहुत सरल एवं व अच्छा हो जाएगा |

कवि का तात्पर्य है कि यदि हम सब के साथ प्रेम पूर्ण ढंग से व्यवहार करेंगे तो सामने वाला भी हमसे उसी तरह पेश आएगा | इससे हममें एकता नजर आएगी और बहुत ही खुशी- खुशी अर्थात हंसते -गाते हमारा जीवन आगे बढ़ता जाएगा |



चतुष्पद ७ :-

साथ निकलेंगे आज नर-नारी ,
लेंगे कांटों का ताज नर-नारी|
दोनों संगी है और सहचर है,
अब रचेंगे समाज नर नारी|


शब्दार्थ :-


सहचर =  साथ -साथ चलने वाला, सहगामी 
रचना   =  निर्माण करना

भावार्थ :-

इस चतुष्पद में कवि ने स्त्री और पुरुष के अंतर को मिटाकर उनमें समानता ही है इस बात को बताया है | कवि त्रिलोचन जी कहते हैं कि जिस तरह से एक साइकिल के दो पहिए होते हैं तभी वह साइकिल बराबर चलती हैं, स्त्री -पुरुष भी उसी साइकिल के चक्के की तरह होते हैं अर्थात समाज का निर्माण या विकास नर और नारी दोनों मिलकर करते हैं | वे दोनों एक दूसरे के पूरक है| 

स्त्री - पुरुष में समानता की भावनाओं को स्पष्ट करते हुए कवि कहते हैं कि यदि स्त्री और पुरुष एक साथ मिलकर कार्य करें तो सामने कितनी भी बड़ी समस्या क्यों न हो वह जल्दी से दूर हो जाती है | कवि कहते हैं कि अब समय आ गया है कि स्त्री और पुरुष दोनों साथ- साथ में कार्य कर समाज को एक नई दिशा प्रदान करेंगे ,एक नई गति प्रदान करेंगे|




चतुष्पद ८ :-

वर्तमान बोला,अतीत अच्छा था,
प्राण के पथ का मीत अच्छा था |
गीत मेरा भविष्य गाएगा,
यो अतीत का भी गीत अच्छा था|


शब्दार्थ :-


वर्तमान  = समय जो अभी चल रहा है 
अतीत   =  बीता हुआ कल 
पथ       = रास्ता ,मार्ग ,राह
मीत      =  मित्र 
भविष्य  = आने वाला कल


भावार्थ :-

इस चतुष्पद पद में कवि कहते हैं कि मनुष्य अपने वर्तमान अर्थात आज में न जीते हुए अपने अतीत में वह जीता है या भविष्य को संवारने के सपने देखता है| कवि यहां यह कहना चाहते हैं कि जो समय बीत गया वह हमारे हाथ में नहीं रहा तथा
भविष्य अपने समय के अनुसार आएगा वह अभी हमारे हाथ में नहीं है; हमारे हाथ में यदि है तो वह है वर्तमान...| कवि कहते हैं कि हमें अपने वर्तमान में जीना चाहिए|

समय के महत्व को स्पष्ट करते हुए कवि कहना चाहते हैं कि हमें अतीत का समय अच्छा लगता है क्योंकि उसमें बहुत अच्छे- अच्छे मित्र हमको मिले थे लेकिन कवि यह कहना भी चाहते हैं कि अभी जो वर्तमान चल रहा है वह अतीत में बदल जाएगा तब वह हम को अच्छा लगने लगेगा | इसलिए हमने वर्तमान को भी पसंद करना चाहिए| इसी तरह से हमारा आने वाला कल अर्थात हमारा भविष्य भी सुनहरा ही होगा|




नवनिर्माण कविता का रसास्वादन :-









Wednesday, May 27, 2020


🌧🌦☁🌨
💧💧💧💧
"EARTH"🌳🌴🌵
      🌏            का कुछ करो🌱
                          नहीं तो ,
" अनर्थ " 🌳🌷🍀
   🌚                 हो जाएगा  |🌿🌾

Monday, May 25, 2020

                         Navnirman Kavita part 1
             
                 

Saturday, May 23, 2020

LOCKDOWN

LOCKDOWN जब हम इतिहास को हाथ में उठाते हैं और उसे पढ़ते हैं ,तब हमें अपने पूर्वजों द्वारा किए गए कार्य पर गर्व होता है हम सर उठा कर उनका इतिहास पढ़ते हैं और कहते हैं| क्या हम जानते हैं कि वर्तमान में जो हम कर रहे हैं वह भविष्य में इतिहास बनने वाला है |अगर हम रहते हैं इस दौर में और हमारी पीढ़ी आगे आती है; तो वह क्या पढ़ेंगे हमारे बारे में कभी हमने ऐसा सोचा है ? नहीं सोचा ना ?मुझे ऐसा लगता है शायद ऐसा सोचेंगे कि, - हमारे पूर्वजों के समय एक महामारी आई और उसे पूरी तरह मिटाने के लिए केवल घर पर रहने की प्रार्थना की गई थी ताकि उस बीमारी को हम जड़ से खत्म कर सके लेकिन उन को घर पर रहना जरूरी नहीं लगता| उन्हें घर में कैद हो यह जो मान्य नहीं |मजबूर होकर सरकार को कर्फ्यू , लॉक डाउन का सहारा लेना पड़ा | पहले उन्हें लगा था कि हम अनुरोध करेंगे तो हमारी जनता मान जाएगी लेकिन हम तो ठहरे अनपढ़, जाहिल ,गँवार हमको प्यार से बोली हुई कोई बात समझ में नहीं आती | अतः सरकार को लॉक डाउन जैसा कड़ा फैसला लेना पड़ा | पर हमारा जाहिलपना यहीं तक सीमित न रहकर और भी तरक्की करता गया अर्थात दिन पर दिन lockdown बढ़ता चला गया ,बढ़ता चला गया ,बढ़ता चला गया ,बीमारी भी उसी तरह बढ़ती चली गई क्योंकि हमने घर पर रहने का एक छोटा -सा भी कार्य पूरा नहीं किया ताकि आने वाली जो पीढ़ी रहे उनको हम एक खूबसूरत सी दुनिया दे सकें| यह बहुत दुखद और शर्मनाक बात है कि जहां हमारे बड़े बड़े पूर्वज इतने सारे युद्ध लड़े वहां पर हम महामारी जैसे युद्ध से लड़ने के लिए घर पर भी ना टिक सके कितनी शर्म की बात है| फिर भी सरकार ने स्थिति को संभाल कर रखा है खाने-पीने जैसी चीजों की सुविधा हर कोई इससे गुजर नहीं रहा है लेकिन कुछ लोग इस से गुजर रहे हैं फिर भी ....फिर भी लोगों को घूमना है ,शॉपिंग करना है ,गर्मी के दिन है तो हिल स्टेशन जाना है |उनको सब करना है सिर्फ घर पर नहीं रहना है ,आज्ञा का पालन नहीं करना है और दिन पर दिन lockdown बढ़ाना है तथा उल्टा सरकार को ही कोसना है कि वह कुछ नहीं कर रही है, हाथ पर हाथ धरे बैठी हुई है| जितनी सरकार को हमसे उम्मीद थी हम उतनी सहायता उनकी नहीं कर रहे हैं फिर भी उन्होंने हालातों को संभाल कर रखने की पूरी कोशिश कर रहे हैं | सोचेा कि अगर हम सरकार की उम्मीदों पर खरा उतरे तो हम क्या नहीं कर सकते? बाकी देशों से तुलना की जाए तो भारत में मृत्यु दर मैं कमतरता पाई गई है इतनी भी नहीं होती यदि हम सही समय पर सही कदम नहीं उठाते| फिर भी अभी ज्यादा कुछ बिगड़ा नहीं है इससे पहले की स्थिति अर्थात हालत गंभीर से गंभीर रूप धारण करें हमें अभी होश में आ जाना चाहिए और इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहिए कि अब यह lockdown और आगे ना बढ़े | सब का भविष्य दांव पर लगा हुआ है ,सब घर पर बैठे हैं अपना काम धंधा छोड़कर ,बच्चे बैठे हैं अपने पढ़ाई को छोड़कर सोचो अगर यह बच्चे ठीक तरह से शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाएंगे तो कैसा होगा उनका भविष्य ? अतः हम सभी देशवासियों का आज की तारीख में यह परम कर्तव्य है कि हम सब कंधे से कंधा मिलाकर घर पर ही बैठे |जरूरत हो तब ही, जरूरत का सामान खरीदना हो तब ही घर से बाहर जाए अन्यथा स्वयं भी घर पर बैठे| बहुत सारे काम है जिसे घर पर बैठ कर भी हम कर सकते हैं |जो काम हमने अधूरे छोड़ दिए थे, अपनी व्यस्तता के कारण कर नहीं पाए थे , आज समय आया है कि हम उन कार्य को पूरा कर सके| अगर हम बाहर निकलते हैं तो महामारी में फंस सकते हैं लेकिन अगर हम घर पर बैठकर अपने रुके हुए कार्य को पूरा करते हैं तो इससे अच्छा सुनहरा अवसर अब हमको और कभी मिलने वाला नहीं है |अतः समय की गंभीरता को समझें घर पर रहे ,सुरक्षित रहें ,खुद भी जिए औरों को भी जीने दें और एक सभ्य , सुशिल, संस्कारी भारतवासी होने का प्रमाण दे और आने वाली पीढ़ी को यह साबित कर दें कि हम भी किसी से कम नहीं है हमने महामारी जैसी बीमारियों से लड़ कर एक नया इतिहास रचा है और बच्चे भी हमारे द्वारा किए गए कार्य को गर्व से सर उठा कर पढ़ सकें, कुछ उससे कुछ सीख सकें|

Friday, May 22, 2020

वास्तविकता

उगते हुए सूरज को सभी सलाम करते हैं, परंतु डूबते सूरज को देखने लोग समय निकाल कर जाते हैं | उगते सूरज को जब सलाम करते हैं ,तो उसमें स्वार्थ छिपा रहता है , वहीं डूबता सूरज हमें शांति प्रदान करता है| . . . . . . हमारे द्वारा किया जाने वाला कार्य व्यक्ति पर क्या प्रभाव डालता है यह मायने रखता है|

Wednesday, May 20, 2020

सुमित्रानंदन पंत

सुमित्रानंदन पंत की 120 वीं जयंती सुमित्रानंदन पंत जी छायावादी युग के चार स्तंभों में से एक थे | पंत जी का जन्म 20 मई 1900 को कौसानी नामक गांव में हुआ था | उनके निवास स्थान को अब "सुमित्रानंदन पंत वीथिका," कहा जाता है जो कि एक बृहत संग्रहालय में परिवर्तित कर दिया हैं. इस संग्रहालय में पंत जी की व्यक्तिगत प्रयोग की वस्तुएं जैसे -कपड़े ,कविताओं की मूल पांडुलिपियाँ, पत्र -पत्रिकाएं ,छायाचित्र आदि को रखा गया है | इसमें एक पुस्तकालय भी है ,जिसमें उनकी व्यक्तिगत तथा संबंधित पुस्तकों का संग्रह है| *सूर्यकांत त्रिपाठी द्वारा बोले गए अनमोल विचार इस प्रकार है : 1. हिंदी हमारे राष्ट्र की अभिव्यक्ति का सरलतम स्रोत है। 2. जीना अपने ही मैं एक महान कर्म है। 3. यदि स्वर्ग कही है पृथ्वी पर, तो वह नारी उर के भीतर; मादकता जग में अगर कहीं, वह नारी अधरों में डूबकर; यदि कहीं नरक है इस भू, पर तो वह भी नारी के अंदर। 4. जीने का हो सदुपयोग यह मनुष्य का धर्म है। 5. वियोगी होगा पहला कवि , आह से उपजा होगा गान; उमड़ कर आंखों से चुपचाप वहीं होगी कविता अनजान। 6. ज्ञानी बनकर मत नीरस उपदेश दीजिए। लोक कर्म भाव सत्य प्रथम सत्कर्म कीजिए। 7. वह सरल, विरल, काली रेखा तम के तागे सी जो हिल-डुल; चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल। 8. मैं मौन रहा, फिर सतह कहां बहती जाओ, बहती जाओ बहती जीवन धारा में शायद कभी लौट आओ तुम। 9. मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोए थे, सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे। रुपयों का कलदार मधुर फसलें खनकेंगी और फूल फलकर मैं मोटा सेठ बनूंगा। पर बंजर धरती में एक ना अंकूर...।

पिंजरा




पिंजरा चाहे सोने का रहो सांस ली नहीं जाती





Sunday, May 17, 2020

अदृश्य सामना



                         

                         अदृश्य सामना







   

Saturday, May 16, 2020

BACHAO

Ham Sabhi Duniya Walon per Jo musibat Aayi hai ,usse Ladne ke liye suraksha kavach pure vaigyanik Milkar dhundh rahe hain tab tak Humko Ek kam karna hai Hi Agar Ham use Ajeeb Shakti se Mukabala nahin kar Saka rahe hai to, Mukabala tak ki naubat hi nahin Aane dena hai apne aapko use se bacha Ke Rakhna hai.

Thursday, May 14, 2020

वास्तविक गुण

                           वास्तविक गुण


गमले में पत्तियां ज्यादा है और पुष्प कम है , फिर भी पत्तियां फूल की सुंदरता छिपा नहीं सकी.....

नियत

                                  Niyat

कार्य करने के लिए बल नहीं बल्कि नियत की आवश्यकता होती है .


संख्या बड़ी रहने से कार्य बड़ा हो ऐसा जरूरी नहीं है ,पांडव केवल पांच थे फिर भी कौरव पर भारी पड़े

Wednesday, May 13, 2020

उर्मिला भी एक नारी थी....

        Pratimimb

                  " URMILA" Bhi Ek Nari thi....

राजभवन में पली-बढ़ी जनक दुलारी सीता को जब हम राम लक्ष्मण के साथ वन - वन भटकते हुए देखते हैं और किस प्रकार सीता जी के कोमल चरणों में काँटा चुभ जाने पर हमारा ह्रदय दहल उठता है कि कितने नाजों से पली सीता जी आज उनकी यह कैसी स्थिति है? इस प्रकार रामायण के अनेक मुख्य तथा  गौण पात्र है, परंतु नारी पात्र में एक ही नाम सामने आता है- सीता ! पर जो पीड़ा ,वेदना , टीस उर्मिला ने सही है उसे बहुत ही सहजता से उपेक्षित किया गया है.


उर्मिला जब लक्ष्मण जी से कहती है कि वह भी उनके साथ वन चलेंगी क्योंकि उर्मिला को यहां बिल्कुल पसंद नहीं था कि वह अपने ससुराल में महलों का सुख भोगे और पति वन -वन भटकते रहें. उर्मिला वन जाने के लिए कहती है तो लक्ष्मण जी समझाते हैं कि वह साथ न चल कर ससुराल में ही रहे तथा सास-ससुर की सेवा करें .उर्मिला की विरह वेदना लक्ष्मण जी भलि-भाँति समझते हैं. वह स्वयं भी उर्मिला पर हो रहे अन्याय से परिचित है तथा लज्जित भी हैं. यह सोचने वाली ही बात है कि जिस कन्या को बचपन में माता-पिता बहनों का स्नेह मिला जो हमेशा भरे -पूरे अर्थात संपन्न परिवार में रही वहां आज ससुराल में आकर एकदम अकेली हो गई है.
14 वर्ष पति की आज्ञा से वह वन जाकर राजभवन में ही ठहरती है तथा घर में सब के रहने पर भी अपने आप को अकेली ही अनुभव करती है. बचपन में माता-पिता बहनों द्वारा मिले प्यार अब उर्मिला को याद आते हैं तथा वह सोचती है कि मुझे जहां मायके में इतना स्नेह मिला ,ससुराल में पति का सुख तो दूर उनके दर्शन मात्र को भी तरसती है .उसे अपना जीवन बोझ- सा लगने लगता है .वह सोचती है कि क्या वह यह सोच कर आई थी कि मायके के समान उसे ससुराल में भी बहनों का स्नेह मिलेगा ही साथ ही साथ सास-ससुर पति इन सब का भी पूर्ण प्रेम प्राप्त होगा तथा वह अपने माता-पिता को याद नहीं आएगी ,परंतु जब वह 14 वर्ष अकेली रहती है तो वह सोचती है कि क्या मेरा इतना भी अधिकार नहीं है कि मैं अपने पति के साथ रहूं उनके साथ राजभवन में ना सही वन ही जाऊँ. नवविवाहिता उर्मिला जिसके हाथों का वैवाहिक रंग अभी तक हल्का भी न पड़ा था कि लक्ष्मण के 14 वर्ष का वियोग अचानक सामने आ पड़ा .वह कांप उठती है तथा मूर्छित हो धरती पर गिर जाती है. तब सभी उसकी वेदना को समझ लेते हैं क्योंकि सीता जी को राम के साथ प्रवास मिलता है तथा मांडवी श्रुति कीर्ति को भी पति का साथ मिलता है परंतु उर्मिला ही आज पति से दूर है.
वेदना के एक-एक दिन उर्मिला के लिए एक-एक युग के बराबर है .उर्मिला के बाह्य पक्ष में तो वहां मुक्त होकर सासुओं की सेवा करने के साथ ही साथ वह अपना ध्यान अन्य कार्यों में बांटने की कोशिश निस्वार्थ भाव से करती है, पर जब आंतरिक पक्ष की बात आती है तो वह अपने प्रियतम को पाने के लिए व्याकुल हो उठती है तथा उनके दर्शन की भी कामना करती हैं .माखनलाल चतुर्वेदी ने उर्मिला के आंतरिक पक्षों को बहुत ही सुंदर शब्दों में वर्णन किया है कि जब कामदेव अपने पुष्प बाण से उर्मिला पर आक्रमण करते हैं तो वह कहती हैं-"मुझे फूल मत मारो ,मैं अबला बाला, वियोगीनी कुछ तो दया विचारों ." उर्मिला अपना मन बहलाने के लिए विविध कला सिखाती है .वह पशु -पक्षियों को पाल लेती है .उनसे अपने दुख  बाँटती है.  उर्मिला आँसू बहा कर अपना दुख भले ही थोड़ी देर के लिए हल्का कर लेती हो किंतु पुष्प, पेड़-पौधे ,पशु- पक्षियों से उसे शिकायत रहती है कि उसे उसके प्रियतम से मिलाने में सहयोग नहीं करते .वह तो मकड़ी के प्रति सहृदय है और वह यही तो चाहती है कि उसके उनके मन का  प्रतिबिंब उनपर पड़े और वह उसकी इस अवस्था को पहचान सके.
 14 वर्ष में सभी ऋतुएं कई बार आई ,लौट गई परंतु इन ऋतुओं का उर्मिला पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता. वह अब भी अपने प्राण प्रिय लक्ष्मण के लिए व्याकुल है .वह सोच रही है लक्ष्मण के सानिध्य के लिए, किंतु क्या और भी किसी ने सोचा कि वे भी एक नारी हैं.



Monday, May 11, 2020

                            CORONA

 तरस जाते हैं अब ट्रेन की आवाज सुनने को 
पहले यही आवाज बहुत सताती थी 
फाटक हमेशा बंद मिलते थे रेलवे के
जब भी जाना होता था उस पार
अब फाटक खुल गए हैं पर जाने वाला कोई नहीं है क्योंकि ट्रेन भी जाती नहीं है.
अजीब बीमारी छाई है महामारी लाई है 
जिंदगी का सफर है अकेले तय करना है 
यहां ना कोई ट्रेन चलेगी ना बस 
इंसान को जीना है तो घर में कैद रहना है.
इसी से बीमारी जाएंगी खुशहाली आएंगी .
इस अदृश्य शत्रु ने तबाही मचाई है 
पूरे विश्व को एक कर दिया है
वह अकेला है ,उसे अकेले ही रहने देना है ,
इसी तरह से सामना करते हुए उसे मार देना है.
जीत निश्चित हमारी होगी क्योंकि उसकी हार तय है.

नमस्ते राधे राधे   
 ऐतिहासिक उपन्यासकार "श्री वृंदावन लाल वर्मा"