कवि संजीव सिंह जी की पिता और पुत्री पर बनी कविता
बाबू जी
सच बात पूछती हूं बताओ ना बाबूजी
छुपाओ ना बाबू जी
क्या याद मेरी आती नहीं
पैदा हुई घर में मेरे मातम- सा छाया था
पापा तेरे खुश थे मुझे मां ने बताया था
ले - ले के नाम प्यार जताते भी मुझे थे
आते थे कहीं से तो बुलाते भी मुझे थे
मैं हूं नहीं तो किसको बुलाते हो बाबूजी...?
रुलाते हो बाबूजी
क्या याद मेरी आती नहीं .....
हर ज़िद मेरी पूरी हुई
हर बात मानते
बेटी थी ,मगर बेटों से
ज्यादा थे जानते
घर कभी होली कभी दीपावली आई
सैंडिल भी मेरी आई मेरी फ्रॉक भी आई
अपने लिए बंडी भी न लाते थे बाबूजी
क्या कमाते थे बाबूजी
क्या याद मेरी आती नहीं......
सारी उमर खर्चे में कमाई में लगा दी
दादी बीमार थी, तो दवाई में लगा दी
पढ़ने लगे हम सब तो पढ़ाई में लगा दी
बाकी बचा वो मेरी सगाई में लगा दी
अब किसके लिए इतना कमाते हो बाबू जी
बचाते हो बाबू जी
क्या याद मेरी आती नहीं.....
कहते थे मेरा मन कही एक पल लगेगा
बिटिया विदा हुई तो घर ये घर न लगेगा
कपड़े कभी,गहने कभी सामान संजोते
तैयारीयां भी करते थे ,
छूप - छूप थे रोते
कर- कर के याद अब तो न रोते हो बाबू जी
न सोते हों बाबू जी
क्या याद मेरी आती नहीं.....
कैसी परंपरा है ये कैसा विधान है....?
पापा बता ना मेरा कौन - सा मेरा जहां है
आधा यहां आधा वहां जीवन है अधूरा
पीहर मेरा पूरा हैं न
ससुराल है पूरा
क्या आपका भी प्यार अधूरा है बाबूजी
न पूरा है बाबू जी
क्या याद मेरी आती नहीं.....
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